शाही स्नान नहीं, अमृत स्नान कहिए: श्री श्री 108 श्री “फूलडोल बिहारी दास जी महाराज

अशोक कुमार मिश्र
प्रयागराज : वृंदावन के सुप्रसिद्ध संत परम पूज्य श्री श्री 108 श्री “फूलडोल बिहारी दास जी महाराज को कुंभ के दौरान “शाही स्नान” व “पेशवाई” शब्द पर आपत्ति है। उनका कहना है कि अमृत स्नान को शाही स्नान करना ठीक नहीं है। शाही एक अरबी शब्द है। मुगल काल में मुस्लिम शासको ने इस अमृत स्नान को शाही स्नान का नाम दे दिया।
श्री श्री 108 श्री “फूलडोल बिहारी दास जी महाराज का कहना है कि समुद्र मंथन से जो अमृत निकला था, उसका प्रवाह कुंभ के दौरान होता है, जिसमें लोग स्नान करते हैं। उनके मुताबिक जैसे मुगल काल में हिंदू लोग रात्रि में छुपकर विवाह करने लगे, वैसे ही इस “अमृत स्नान” को भी मुगलों के डर से “शाही स्नान” का नाम दे दिया गया। महाराज श्री के अनुसार पेशवाई भी फारसी शब्द है। यह भी मुगलों के डर से इस्तेमाल किया जाता था। उनका कहना है कि मोदी और योगी के इस युग में अब मुगलों द्वारा दिए गए नाम का इस्तेमाल करना ठीक नहीं है।
महाराज श्री के अनुसार समुद्र मंथन से जो अमृत निकला वह प्रयाग में भी गिरा। उसी अमृत में स्नान करने के लिए साधु, संत, मंहत, बैरागी, बाबा, योगी, आचार्य, महामंडलेश्वर सब आते हैं। पृथ्वी के इस सबसे बड़े पर्व में पृथ्वी के हर कोने से लोग आते है और स्नान, ज्ञान, व्रत, त्याग, सत्संग का लाभ पाते है। कुंभ देश की समरसता का ऐसा महापर्व है जहां बिना किसी आमंत्रण के लोग सहस्त्राब्दियों से इकट्ठा होते रहे हैं। हर 12 साल में लगने वाले कुंभ को पूर्ण कुंभ कहते है। अर्धकुंभ हर 6 साल में होता है। अर्ध कुंभ सिर्फ प्रयागराज और हरिद्वार में ही लगता है। 12 पूर्ण कुंभ के बाद यानी हर 144 साल पर एक महाकुंभ आता है। महाकुंभ का आयोजन सिर्फ प्रयाग में ही होता है।
अनंत काल से बिना किसी निमंत्रण के सबसे बड़ा जमावड़ा संगम तट पर होता रहा है। पौराणिक कथा के अनुसार देवराज इंद्र ने ऋषि दुर्वासा का अपमान कर दिया। अपमानित होकर ऋषि दुर्वासा ने इंद्र को श्रीहीन होने का शाप दे दिया, इस कारण स्वर्ग का ऐश्वर्य नष्ट होने लगा। दुखी देवता भगवान विष्णु के पास पहुंचे। विष्णु ने कहा कि शाप को दूर करने के लिए असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करना पड़ेगा। मंथन से कई दिव्य रत्नों के साथ अमृत भी निकलेगा। अमृत पान से देवता अमर हो जाएंगे और स्वर्ग का वैभव लौट आएगा। विष्णु की बात मानकर देवराज इंद्र ने दैत्यराज बलि से बात की। दैत्यराज बलि भी रत्न और अमृत पाने की इच्छा से समुद्र मंथन के लिए तैयार हो गए। समुद्र मंथन के लिए वासुकि नाग की रस्सी बनाई गई और मदरांचल पर्वत को मथानी। समुद्र मंथन से एक-एक करके कुल 14 मुख्य रत्न निकले थे। मंथन के अंत में भगवान धन्वंतरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए। देवताओं और दानवों में होड़ लगी की अमृत पहले कौन लेगा। अमृत को दानवों से बचाने के लिए इन्द्र ने अपने बेटे जयंत से अमृत कुंभ लेकर देवलोक जाने को कहा, पर दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने जयंत को कुंभ लेकर भागते देख लिया। देवताओं और दानवों में अमृत के लिए युद्ध छिड़ गया। जयंत अमृत कुंभ बचाने में तो सफल रहा पर इस छीना-झपटी में देवलोक में आठ और पृथ्वी लोक में चार जगह कुंभ से अमृत छलक गया। पृथ्वी पर ये बूँदें प्रयाग के संगम तट पर, उज्जैन के क्षिप्रा तट पर, हरिद्वार में गंगा के किनारे और नासिक में गोदावरी तट पर गिरी। तब से कुंभ इन्हीं चारो में बारी बारी से कुंभ लगता है। हर शहर का अवसर बारहवें साल बाद आता है। अमृत के लिए सुरों-असुरों में बारह रोज तक युद्ध चला था। देवताओं का एक दिन मनुष्य के एक वर्ष के बराबर है। इसलिए कुंभ का हिसाब बारह बरस का बैठता है। इस देव दानव संघर्ष के दौरान कुंभ की सुरक्षा का दायित्व बृहस्पति, चंद्रमा, सूर्य और शनि का था। चंद्रमा को अमृत गिरने से, बृहस्पति को उसे दानवों से बचाने, शनि को देवताओं की हिफाजत और सूर्य के पास कुंभ को टूटने से बचने का जिम्मा था, इसलिए कुंभ में इन ग्रहों की विशेष स्थिति होती है। तब से जब भी सूर्य मेष राशि में और बृहस्पति कुंभ राशि में आता है, तो प्रयाग में महाकुंभ लगता है।
कुंभ में चारों शंकराचार्य और इन पीठों की रक्षा के लिए बने तेरहों अखाड़े सभी स्नान पर्व पर सबसे पहले स्नान करते है। हिंदू धर्म में अखाड़ों की अपनी परंपरा रही है। आदि शंकराचार्य जी ने वैदिक धर्म की स्थापना की तो ये अखाड़े धर्म की रक्षा के लिए बने। आदिशंकर ने भारत के चार कोनों में चार मठ स्थापित किए। उत्तर में बद्रिकाश्रम, पश्चिम में द्वारका, पूर्व में पुरी और दक्षिण में शृंगेरी। इन मठों के नाम पड़े ज्योतिष पीठ, शारदा पीठ, गोवर्धन पीठ और शृंगेरी पीठ। इन मठों की रक्षा और हिंदू धर्म पर बढ़ते इस्लाम के खतरे से निपटने के लिए अखाड़े बनाए गए। जहाँ संन्यासियों को शास्त्र के साथ-साथ शस्त्र की भी दीक्षा दी जाती थी, जो शास्त्र से नहीं मानते, उन्हें शस्त्र से मनाने के लिए अखाड़ों का जन्म हुआ था। इन अखाड़ों ने स्वतंत्रता आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आजादी के बाद इन अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग कर जप, तप, योग व लोक कल्याण पर ध्यान देना शुरू कर दिया।
अखाड़ों के दो संप्रदाय हुए, शैव और वैष्णव। जो शिव की आराधना करते हैं, वे शैव अखाड़े हुए और जो विष्णु की आराधना करते, वे वैष्णव अखाड़े कहलाए। रामानंद वैष्णव गुरु थे, जो शंकराचार्य से कई शताब्दियों बाद हुए। शैव संप्रदाय के छह मुख्य अखाड़े थे और वैष्णवों के सात। इन्हीं तेरह अखाड़ों के सहारे हिंदू धर्म संचालित होता है। वैष्णव साधुओं में चार संप्रदाय हैं- रामानुजी, रामानंदी, निंबार्क और माधव चैतन्य। अयोध्या में रामानंदी संप्रदाय राम जन्मभूमि पर होने वाले हर हमले में आक्रांताओं से लोहा लेते रहे। निर्वाणी अखाड़ा रामानंदी संप्रदाय में से एक था, जो धर्म की रक्षा के लिए मरने-मारने का काम करते हैं। इसके दो अन्य अंग है, निर्मोही और दिगंबरी अखाड़ा। निर्वाणी अखाड़े का केंद्र अयोध्या की हनुमानगढ़ी है। अयोध्या में ज्यादातर रामानंदी वैरागी साधु हैं, जो इस्लामी आक्रांताओं के हमले होने पर उनसे लोहा लेते थे।
अखाड़ों में साधुओं की भर्ती आसान नहीं होती है। शैव परंपरा में नागा साधु बनने के लिए अखाड़े को काफी समय देना होता है. अगर कोई साधु बनना चाहता है, तो उसे कुछ समय अखाड़े में रखकर अपनी सेवाएं देनी होती है। सेवा का समय 6 महीने से लेकर 6 साल तक भी हो सकता है। फिर, किसी कुंभ मेले में उसे दीक्षा दी जाती है। इसके लिए व्यक्ति को अपने सांसारिक जीवन का त्याग करना पड़ता है, खुद का पिंडदान करना होता है. करीब 36 से 48 घंटे की दीक्षा प्रक्रिया के बाद उसे नए नाम के साथ अखाड़े में प्रवेश मिलता है। अखाड़ों में नागाओं की भर्ती सिर्फ कुंभ के दौरान ही होती है।