
उफ! वे चुनार के कठोर पत्थर
हथौड़ा थामे मलिन कमजोर औरत।
धू-धू कर जलती धूप भीषण पसीने की बौछार
पत्थर के हर टुकड़े जैसे हो अंगार।
नृत्य करती सूरज की किरणें विषधर किसी नागन सी
झेल रही थी वह अबला बेबस बन अभागन सी।
धधक रही थी क्षुधा की ज्वाला उसको उसे बुझाना था
दुधमुँहे अपने लाल की खातिर छाती में दूध जमाना था।

चिंगारी उम्मीदों की पत्थरों में उसने जलायी थी
लोहा बनाकर स्वयं को वक़्त से आ टकराई थी।
पत्थरों को नहीं वह मुश्किलों को तोड़ रही थी
ठंढे पड़े तवे के लिए वह चँद रोटियाँ जोड़ रही थी।
जिद्द थी उसकी धरती को पसीने से नहलाने की
दो जून के अनाज उन चट्टानों पर उगाने की।
दुनिया से दूर गुमसुम अपने आप में खोई थी
वक्त का हर चोट उसके आसुओं से धुली थी।
तन्हाई का कारवाँ और बारात थी परछाई की
फरेबी की धुन्ध में वह बिम्ब थी सच्चाई की।
बलिया (उत्तर प्रदेश)