धर्म

हज़रत अली की शहादत का महीना भी है मुक़द्दस रमज़ान

इसी महीने में पैदा हुए नबी के नवासे 'इमाम हसन'

वाराणसी। यूं तो साल का सारा दिन और सारी रात अल्लाह के बनाये हुए हैं, लेकिन रमज़ान महीने के दिन व रात को कुछ खास खुसूसियत हासिल है। इसकी वजह यह है कि मुकद्दस रमज़ान महीने के एक-एक पल को अल्लाह ने अपना कहा है। यह महीना बरकतों और रहमतों का है। इस महीने में इबादतों का सवाब कई गुना ज्यादा खुदा अता फरमाता है। इस महीने में मुकद्दस कुरान शरीफ नाज़िल हुई। रमज़ान में एक रात ऐसी भी है जो हज़ार महीनों की इबादत से बेहतर है। इसे शबे कद्र कहते हैं। इस रात हज़रत जिबरीले अमीन दूसरे फरिश्तों के साथ अर्श से ज़मी पर रहमतें लेकर नाज़िल हुए थे। यह वो महीना है जिसमें तोहफे हजरते इब्राहिम (हजरत इब्राहिम की पाक किताब) नाज़िल हुई। इसी महीने में हजरते मूसा की किताब तौरेत का भी नुज़ूल हुआ और यही वो महीना है जिसमें हजरते ईसा की किताब इंजील आसमान से उतारी गयी। इस महीने में बहुत सी मुबारक बातें पेश आयीं जिनसे इसकी फज़ीलत में चार चांद लग गया है। नज़ीर के तौर पर रसूले इस्लाम के पौत्र इमाम हसन मुजतबा पन्द्रह रमज़ान को पैदा हुए। इस्लामी लश्कर ने बद्र और हुनैन जैसी जंगों को इसी महीने में जीता। मुकद्दस रमज़ान में ही मुश्किलकुशा मौला अली की शहादत हुई जिससे पूरी दुनिया में उनके मानने वाले गमज़दा हुए मगर हज़रत अली ने इसे अपनी जिंदगी की सबसे बड़ी कामयाबी बताया। हज़रत अली मुश्किलकुशा कहते हैं कि रोज़ा इसलिए जरूरी किया गया है ताकि बंदे के एखलाक को आज़माया जा सके और उनके खुलूस का इम्तेहान लिया जा सके और यही सच्चाई है कि दूसरे सारे फर्ज़ में इंसान कुछ करके अल्लाह ताला के हुक्म पर अमल करता है मगर रोज़े में कुछ चीज़ों को अंजाम न देकर अपने फर्ज़ को पूरा करके खुदा के हुक्म को मानता है। दूसरे किसी भी अम्ल में दिखावे की संभावना रहती है मगर रोज़े में ऐसा नहीं हो सकता। अल्लाह का कोई बंदा जब खुलूसे नीयत के साथ उसे खुश करने के लिए रोज़ा रखता है तो उसके बदले में खुदा भी उसकी दुआओं को क़ुबूल करता है। जैसा की रसूले अकरम (स.) और उनके मासूम वारिसों ने फरमाया है कि रोज़ेदार इफ्तार के वक्त कोई दुआ करता है तो उसकी दुआ वापस नहीं होती। ऐ पाक परवरदिगार हमें रोज़ा रखने की तौफीक दे। ताकि हमारी दुआओं में असर पैदा हो सके और खुदा के फैज़ से हमारी ईद हो जाये..आमीन।

मौलाना नदीम असगर
शिया आलिम (जव्वादिया अरबी कालेज, वाराणसी)

aman

मैंने बतौर पत्रकार कैरियर कि शुरुआत अगस्त 1999 में हिन्दी दैनिक सन्मार्ग से किया था। धर्मसंघ के इस पत्र से मुझे मज़बूत पहचान मिली। अक्टूबर 2007 से 2010 तक मैंने अमर उजाला और काम्पैक्ट में काम किया और छा गया। राष्ट्रीय सहारा वाराणसी यूनिट लांच हुई तो मुझे बुलाया गया। अक्टूबर 2010 से मार्च 2019 तक मैं राष्ट्रीय सहारा वाराणसी यूनिट का हिस्सा था। आज जब दुनिया में बद्लाव शुरू हुआ, चीज़े डिज़िटल होने लगी तो मैंने भी डिज़िटल मीडिया में बतौर सम्पादक अपने कैरियर कि नई शुरूआत दिल इंडिया लाइव के साथ की। इस समय में हिंदुस्तान संदेश में एडिटर हूं। मेरा यह प्लेट्फार्म किसी सियासी दल, या किसी धार्मिक संगठन का प्रवक्ता बन कर न तो काम करता है और न ही किसी से आर्थिक मदद प्राप्त करता है।

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