साहित्य
हिंदी कविता-‘मां”

माँ
प्रसव के दौरान मर – मिटने को तैयार
उठकर चिता से बैठना चाहती थी
आसमान जस आँचल जिसका
धरती जैसी छाती थी ।
जिसके सम्मुख समुद्र भी छिछला
ऊँचा हिमालय बौना था
उसी माँ के गोदी का
मैं डोलता हुआ खिलौना था।
हिम से शीतल, ऊष्म सूरज से
गंगा जल जस निर्मल थी
पावक थी प्रत्येक पर्व से
विरल और वह निश्छल थी।
धैर्य की चरम शक्ति लिए
हृदय में प्रेम का भण्डार भरे
डगमगाई जब भी मजधार में कश्ती
हौसलों के पतवार धरे।
घोर पीड़ा प्रसव का
ओह! वे संघर्षों के तूफान
रक्त रंजित हो सतत् डटी रही
उस देवी को प्रणाम।
