वाराणसी

बनारस की ये लव स्टोरी है सैकड़ों साल ओल्ड

जानिए आशिक माशूक की इस प्रेम कहानी का वेलेंटाइन डे से क्या है नाता

सरफराज अहमद

वाराणसी। बनारस में आशिक माशूक की मजार अपने भीतर सैकड़ों साल ऐतिहासिक मोहब्बत की अनोखी दास्तां छुपाएं हुए हैं। यही वजह है कि अपनी मुरादों को लेकर वेलेंटाइन डे पर यहां आशिक माशूक जुटते हैं। आलम यह है कि कोई अलग धर्म के होने की वजह से अपनी प्रेमिका को पाने की जद्दोजहद में इस मजार पर मन्नत मांगने पहुंचता है तो कोई अपने प्रेमी के साथ पूरी जिंदगी बिताने की चाहत में यहां चिट्ठियां बांधता है। आपको बनारस की इस आशिक माशूक की मजार में ऐसी कई कहानियां मिलेंगी, जो अपनी चाहत पूरी करने के लिए यहां पहुंचते हैं। कुछ की मन्नतें पूरी होती हैं, तो वो दरगाह पर पहुंचकर चादर चढ़ाने से लेकर बाबा का शुक्रिया कहना नहीं भूलते। कुछ अपनी मन्नतों को पूरा करने के लिए यहां हाजिरी लगाते हैं।

400 साल ओल्ड है ये खास लव स्टोरी

आप सोच रहे होंगे कि आखिर आशिक माशूक कि मजार का क्या इतिहास है? आखिर कौन हैं आशिक माशूक? आइए वेलेंटाइन डे पर आपको उस सच्चे प्रेमी जोड़े की कहानी ही हम सुनाने जा रहे हैं जो वक्त के साथ आशिक माशूक नाम से वाराणसी के सिगरा में तशरीफ़ फ़रमा हैं।

इस मजार के मुजावर फरीद शाह का कहना है कि बनारस के सिगरा स्थित सिद्धगिरी बाग के पास औरंगाबाद मोहल्ले में आशिक माशूक की मजार महत्वपूर्ण इसलिए है, क्योंकि इसका इतिहास 400 साल कदीमी है। जिसका जिक्र तारीखे बनारस और दूसरी किताबों में भी दर्ज है।

कौन हैं आशिक माशूक, क्या है कहानी 

फरीद शाह बताते हैं कि 400 साल पहले ईरान के एक व्यापारी अब्दुल समद बनारस आए और परिवार के साथ रहते हुए यहां व्यापार शुरू किया था। उस वक्त उनका बेटा मोहम्मद यूसुफ भी उनके साथ था। इस दौरान गाज़ी मियां का मोहल्ले में मेला लगा हुआ था जिसमें घूमने युसूफ भी पहुंच गया। मेले में ही युसूफ की नज़र दूर खिड़की में बैठी एक लड़की पर पड़ी। उसे देखते ही युसूफ उस पर फ़िदा हो गया। उसने पता किया तो उसका नाम मरियम था। इस दौरान युसूफ का मरियम के मुहल्ले में आने जाने का सिलसिला जो शुरू हुआ, मरियम को भी यह जानकर युसूफ से मोहब्बत हो गई। दोनों के बीच प्यार परवान चढ़ने लगा। मरियम के घरवालों ने समाज के डर से उसे रामनगर जो गंगा उस पार का इलाका है, वहां भेज दिया। इसके बाद दोनों प्रेमी-प्रेमिका पागलों की तरह इधर-उधर एक-दूसरे को तलाशते रहे।

मुजावर  बताते हैं कि युसूफ अपनी प्रेमिका को तलाशते हुए जब नाव से रामनगर की तरफ जा रहा था, उस दौरान गंगा पार करते वक्त उसे गंगा में एक जूती दिखाई दी। उसके साथ के लोगों ने कहा कि यह मरियम की जूती है। यह सुनते ही यूसुफ ने गंगा में छलांग लगा दी और फिर कभी नहीं लौटा। इस बात की जानकारी जब मरियम को हुई, तो उसने भी वहीं पहुंचकर अपने प्रेमी का नाम लेते हुए गंगा में छलांग लगा दी। दो दिन बाद दोनों की लाशें बाहर आईं तो दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए थे।

यह नजारा देकर हर कोई हैरान था। बाद में दोनों को सिद्धगिरी बाग स्थित कब्रिस्तान में सुपुर्द-ए-खाक किया गया। तभी से इस जगह को आशिक माशूक की मजार के नाम से जाना जाने लगा। इस स्थान पर प्रेमी जोड़े हमेशा अपनी मन्नतों के साथ पहुंचते हैं। छोटी-छोटी चिट्ठियां लिखते हैं। महिलाएं और युवतियां अपने हाथों की चूड़ियां, अपनी माला जैसी चीजों को यहां अर्पित करके मन्नत मांगती हैं। जिनकी मन्नत पूरी हो जाती है, वो हाजिरी लगाकर आशिक माशूक का शुक्रिया अदा करते हैं।

aman

मैंने बतौर पत्रकार कैरियर कि शुरुआत अगस्त 1999 में हिन्दी दैनिक सन्मार्ग से किया था। धर्मसंघ के इस पत्र से मुझे मज़बूत पहचान मिली। अक्टूबर 2007 से 2010 तक मैंने अमर उजाला और काम्पैक्ट में काम किया और छा गया। राष्ट्रीय सहारा वाराणसी यूनिट लांच हुई तो मुझे बुलाया गया। अक्टूबर 2010 से मार्च 2019 तक मैं राष्ट्रीय सहारा वाराणसी यूनिट का हिस्सा था। आज जब दुनिया में बद्लाव शुरू हुआ, चीज़े डिज़िटल होने लगी तो मैंने भी डिज़िटल मीडिया में बतौर सम्पादक अपने कैरियर कि नई शुरूआत दिल इंडिया लाइव के साथ की। इस समय में हिंदुस्तान संदेश में एडिटर हूं। मेरा यह प्लेट्फार्म किसी सियासी दल, या किसी धार्मिक संगठन का प्रवक्ता बन कर न तो काम करता है और न ही किसी से आर्थिक मदद प्राप्त करता है।

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